Tuesday, January 11, 2011

वह श्रमपुरुष

वह श्रमपुरुष

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वह श्रमपुरुष सतत कार्य करता था।थक जता तभी विश्राम करता था।काम करना और विश्राम करना दो ही उसकी प्रवृत्ति थी।


‘आप इन दो ही प्रवृत्ति क्यूँ करते हो?’एक यौवना ने भाव से उसे पूछा।


उसने स्मित किया।कोई भी जवाब न दिया।


यौवना ने फिर भाव से उसे पूछा।


‘सतत श्रम के बाद मैं विश्राम करता हूँ तभी देह से बाहर निकल जाता हूँ...हवा में उड़ता हूँ;फूलों के साथ खेलता हूँ।जड़-चेतन सभी अपने दोस्त बनते है।मैं उन से परमभाव को अपने पूरे अस्तित्व से पीता हूँ।जब देह थकान से दूर होता है तब मैं फिर से देह में प्रवेश करता हूँ।उस ताजगीपूर्ण देह से मैं पुनः विश्राम में डूब जाता हूँ।इस चक्र चलता रहता है और जीवन उसके मूल रस से बहता रहता है।’उसने जवाब दिया।


‘...परंतु देह की जागृतावस्था में इस तरह नहि जिया जा सकता?'


‘जिया जा सकता;लेकिन मेरे श्रम से किसी-किसी के लिए आनंद का निर्माण होता है इसलिए मैंने श्रम और विश्राम का जीवन स्वीकार किया है।'


‘वाह,जग के महापुरुष तू अनन्य है।'इस तरह कहकर वह यौवना उसके चरनों में समर्पित हो गई।


तभी श्रम और विश्राम का मधुर गीत उस यौवना के अस्तित्व से हवा में फैल रहा था।