Monday, June 7, 2010

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मेरे आँगन में तब पक्षीओं खेल रहे थे।हवा गीत गा रही थी।छोटें-छोटें बच्चें नियमहीन खेल,खेल रहे थे।
तब...
उस विराट तत्त्व मेरे भीतर तरंगित हो रहा था।मैं मस्त था।चारों ओर से सभी अपनी मस्ती को विराट कर रहे थे।
मुझे स्पष्ट लग रहा है कि जीवन का सर्जन उस स्थिति में जीने के लिए ही हुआ है।
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मेरे आत्मज्ञानी मित्रों को एकबार  मुझ पर अनहद करुणा हुई।मैं जहाँ-तहाँ विचरता था।सूर्यास्त पर जहाँ साढ़े पाँच फूट की जगह मिले वहाँ विश्राम कर लेता था।
'तू एक घर का निर्माण कर।'
'मैं कैसे घर निर्माण करुँ,मित्रो?मेरी ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि मैं घर बना सकूँ।'मैंने उनको कहाँ।
'तुझे कैसा घर चाहिए?हम बना देंगे।'
मैंने उनकी करुणा आत्मसात् की,'लहराते वृक्षों हो,दूर-दूर से प्राणीओं उनके बच्चें के लिए गीत गाते हो,हवा नृत्यमय हो,एक भी मानव की कलुषितता जहाँ हवा से,द्वनि से पहुँच न रही हो ऐसी बहती नदी के किनारे अपने को एक झौंपडी बना दो  तो मैं तुम्हारा उपकार कभी भूल न सकूँगा।'
सब आत्मज्ञानी मित्रों ऐसा स्थल ढूँढ़ने केलिए प्रयास करने लगे।अनहद प्रयास के बाद वे मेरे पास आए,पूरे जगत को हमने देखा।एक भी ऐसा स्थल न मिल सका।'
मैं सरलता से हँस पड़ा।
मैंने अब स्वीकार कर लिया है कि जगत में अपने लिए घर बनाने का एक भी स्थल नहीं है।
हृदय के कोने में साढ़े पाँच फूट की जगह बनाकर मैं विश्राम कर लेता हूँ।मुझे अपना यह घर स्वर्ग से भी सुंदर लगता है।
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महानंद से समय प्रसार हो रहा था।प्रिया से दूर होने की तनिक भी ईच्छा न थी।परंतु दूर होना ही पड़ेगा क्योंकि जीने की अंतिम क्षणों ही मेरे पास थी।
'जाऊँ?'
'जाओँगे?'आँसु से बहता प्रिया का शब्दो...
'क्यों,विरह प्रेम नहीं है?'मेरा प्रश्न...
वह समग्रता से हँसी और विरहप्रेम का एक चुम्मा मेरे गाल पर किया।वह चुम्मा से मैंने महसूस किया कि वह मेरे हृदयघर में समा गयी।
मैंने उसके निष्प्राण देह की विदाई ली तब प्रकृति के सभी तत्त्व विरहप्रेम का गीत गा रहे थे।

2 comments:

Nitish Raj said...

रामजी भाई, सजावट अच्छी बात होती है पर अधिक सजावट कई बार असहज बना देती है। अब आपकी पोस्ट को पढ़ने के लिए खूब कोशिश करनी पडी और अंत में बीच में ही छूट गई। नहीं पढ़ी जा सकी। आप पोस्ट के टैक्सट के साथ छेड़खानी ना करें फिर चाहे जहां करें। धन्यवाद। स्वागत है।

khabarchi said...

बहुत बढिया....अच्छी सोच है.
www.jugaali.blogspot.com